शुक्रवार, 1 मई 2009

क्यों आज मैंने देखा ?



आज
मैंने
अपने अन्दर
झाँक कर देखा !
एक आदर्श मानवता को
भय से कांपते देखा
जो था बहार वैसा मैं अपने भीतर न था
ऐसा मैंने ख़ुद को ख़ुद से आंक के देखा !

मैंने पुछा अपने मैं से
बतला दो भय तुमको किसका
उसने कहा मुझे जो भय है
तेरे सिवा और हो सके है किसका

आगे उसने यूँ कुछ बोला
अपना था ,हर भेद भी खोला
उसने है मुझे जब जब पुकारा
मैंने था उसको धुतकारा
उसने मुझे पल पल समझाया
लेकिन उसे मैं समझ ना पाया
उसने कहा यह काम ग़लत है
मैंने कहा ये वीरम ग़लत है
उसने हर अन्धकार में मेरे रोशनी के थे दिए जलाए
मैं था पागल मंदबुधि प्राणी
समझ न पाया अपने मैं की वाणी

आज मुझे जब होश है आया
हर भय
दुःख
तकलीफ से मैंने पलभर में ही पार है पाया

पछतावा है मुझको अब ये
इतने दिन बाद क्यों देखा ?

इससे पहले, क्यों नही मैंने अपने अन्दर ऐसे झाँक के देखा ???